श्रीविद्या क्यों?

इति पृष्टो भागवता प्रोवाच मुनिसत्तम: |
यदि तुष्टो’सि भगवन्निमे पामरजंतवः ||

श्रीविद्या का हेतु, और किस प्रकार से यह विद्या अन्य तांत्रिक पद्धतियों से भिन्न है, इसका विवरण  ब्रह्माण्ड पुराण में लिखित है। अगस्त्य मुनि गृहस्थों को पुरुषार्थ कामनाओं में उलझे हुए और परमार्थ साधना में अप्रगतिशील पाते हैं। इस कारण वे भगवान हयग्रीव से गृहस्थों के लिए व्यावहारिक लाभ और पारमार्थिक प्रगति पाने का साधन एवं मार्गदर्शन पूछते हैं ।

तस्मादशेसलोकानां त्रिपुराराधनं विना |
न स्तो भोगापवरगौं तु यौगपद्येन कुत्रचित ||

भगवान हयग्रीव कहते हैं के त्रिपुर साधना अथवा श्रीविद्या के व्यतिरिक्त, भुक्ती और मुक्ति का और कोई समवर्ती मार्ग नहीं है ।
पुराणों में गृहस्थाश्रमियों के लिए भुक्ति-मुक्ति  पाने का सरल मार्ग, श्रीविद्या बताया गया है । आत्मज्ञान साध्य करने के लिए  गृहस्थाश्रमी के पास  ना मीरा जैसी भक्ति-रस की प्रगाढ़ता है, नाही ज्ञान-क्रिया कर्म साधना मार्ग के लिए आवश्यक प्रतिबद्धता है।  इस साधना में लगने वाले विरक्ति भाव केवल एकाग्र भक्ति, कर्म, निष्ठा सेवा भाव और ज्ञान से उजागर हो सकता है, जो गृहस्थियों के लिए कठिन है।
कुण्डलिनी तंत्र का केंद्र-बिंदु श्रीविद्या है; जो इन चारों मार्ग – भक्ति, क्रिया, ज्ञान और कर्म के उचित सम्मिश्रित मध्य मार्ग है, जिससे भुक्ति में रहकर भी मुक्ति साध्य की जा सकती है।

श्रीविद्या गुरु , श्रीविद्या ग्रंथों के क्रमानुसार,  साधक को महात्म्य खंड (भक्ति), चर्या खंड(कर्म), क्रिया खंड (साधना) और ज्ञान खंड( ज्ञान प्राप्ति),  से अवगत कर , श्री त्रिपुरसुंदरी के साथ ऐक्यत्व से आत्मज्ञान प्राप्ती का मार्गदर्शन कराते हैं ।
केवल भक्ति अथवा केवल ध्यान श्रीविद्या मार्ग का चलन नहीं है। श्रीविद्या मार्ग , श्रीविद्या तंत्र पद्धति में संबंधित विविध  देवताओं की पूजा विधियों और  क्रमशः प्रगति का प्रयोजन करता है।

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